कुछ  कहें 

कुछ  कहें 


ये एक अलसाई  सी सुबह है .सूरज भी बादलों की ढांप लिए है .कहने को दोस्तों ये  नए साल  का जश्न है,लेकिन कोहरे की चादर के बीच ये कैसा नया साल .जो कुछ भी बीते दिनों हुआ वो  हमारी मुट्ठियो को भीच देने वाला था । तब  ख़ामोशी ने हाथ कड़े किये और संवेदनाओं का जन-सैलाब सड़कों पर उतर पड़ा।दुष्यन्त की पँक्तियों में ------'राम जाने किस जगह होंगे कबूतर ,इस इमारत में कोई गुम्बद नहीं है'.



उम्मीद लगाई जा सकती है कि रात-अँधेरे के बाद एक उजाला आँखों में आंसू के कतरे नहीं , खुशियों के लिए एक बेहतर सुबह तलाशेगा ।कबूतरों को भी  खुशहाली का गुम्बद मिलेगा और नया साल हमें डरा-सहमा सा नहीं ,गुनगुनी धुप सा उतरता दिखेगा
                                                              प्रबोध उनियाल