...... परिवर्तन की ओर

आज कल समाज मे बेटियों से संबंधित मुद्दे अक्सर ही चर्चा में रहते हैं। चलने वाली ये चर्चायें वा कार्यक्रमों का उद्देश्य न सिर्फ बेटियों की सुरक्षा तक सीमित है अपितु उनकी शिक्षा, स्वलंबता, वा समानता को भी संज्ञान में लिया जा रहा है। समाज में ऐसी जागरूकता देख मन अत्यधिक प्रफ्फुलित तो होता है परन्तु अनायास ही प्रश्न मन में आता है कि क्या ये प्रयास परिपूर्ण हैं। किस हद तक ये प्रयास नारियों के प्रति हमारी मानसिकता को बदलने में कामयाब हुए हैं। आज भी गर्भवती महिला को यही आशीर्वाद दिया जाता है कि पुत्रवती भव। आज भी अधिकतर दम्पति बेटे की ही चाह रख़ते हैं, क्यों..?



क्योंकि समाज में प्रचलित कुरीतियां आज भी बेटियों को समाज मे वो स्थान नही दिला पायी हैं जिनकी वे हकदार हैं। बेटी के जन्म के साथ ही माता पिता उसकी सुरक्षा को लेकर चिंताग्रस्त हो जाते हैं। वे अपनी बेटियों को स्वावलंबी तो बनाना चाहते हैं पर असामाजिक तत्वों का भय उन्हें अनायास ही अपनी बेटियों को देर रात घर से बाहर निकलने से रोक देता है।


प्यार से पाली पोसी बेटियों को बड़ा करके उन्हें ससुराल भेजना भी माता पिता के लिए अत्यंत चिंता का विषय है। उनके पास राज करने वाली बेटियों को शादी के बाद उनके ससुराल में कितना महत्व मिलता है, इसका कोई अनुमान नही होता। हर  क्षण उन्हें अपनी महत्ता सिद्ध करनी होती है। अपनी प्रोफेशनल जिंदगी में भी महिलाओं को अपने समकक्ष पुरुषों से अधिक मेहनत करके ऑफिस के साथ साथ घर की भी जिम्मेदारी संभालनी होती है। इस पुरुष प्रधान समाज मे हर मोड़ पर एक नई दुविधा से झुझती हैं ।
फिर भी बदलती सोच के साथ कई परिवार अपनी बेटियों को ही मजबूत बना रहे हैं।बेटियों को स्वालंबी व मजबूत बनाने जैसे  सार्थक परिवर्तन के साथ साथ ये अत्यधिक आवशयक है कि अपने बेटों को मजबूत महिलाओं को अपनाना सिखाया जाए। महिलाओं के फैसलो का सम्मान करना सिखाया जाए, उनके मतों को महत्व देना सिखाया जाए व सबसे महत्वपूर्ण उनके योगदान को सराहना सिखाया जाए। माँ का ही पहला फ़र्ज़ है कि वो अपने बेटों में ये समाहित करे कि महिला या पुरूष होने से पहले हम सब इंसान हैं जिनके सभी अधिकार और कर्तव्य समान हैं।
.............दिव्या डुडेजा की कलम से...✍🏻